आरक्षण की समीक्षा
#अनारक्षित_वर्ग _के_लोगों_के_तर्क_कुछ_इस_प्रका र_होते_है :-
1. आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिए
2. आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति आगे आते है
3. आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है
4. आरक्षण ने ही जातिवाद को जिन्दा रखा है
5. आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए था
6. आरक्षण के माध्यम से सवर्ण समाज की वर्तमान पीढ़ी को दंड दिया जा रहा है
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
इन बेतुके तर्कों के जवाब इस प्रकार है :-👉👇
#पहले_तर्क_का_ज वाब :- 👉आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है,
1. आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिए
2. आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति आगे आते है
3. आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है
4. आरक्षण ने ही जातिवाद को जिन्दा रखा है
5. आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए था
6. आरक्षण के माध्यम से सवर्ण समाज की वर्तमान पीढ़ी को दंड दिया जा रहा है
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
इन बेतुके तर्कों के जवाब इस प्रकार है :-👉👇
#पहले_तर्क_का_ज
गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने हेतु सरकार अनेक कार्यक्रम चला रही है और अगर चाहे तो सरकार इन निर्धनों के लिए और भी कई कार्यक्रम चला सकती है। परन्तु आरक्षण हजारों साल से सत्ता एवं संसाधनों से वंचित किये गए समाज के स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है। प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान की धारा 16 (4) तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332 एवं 335 के तहत कुछ जाति विशेष को दिया गया है।
#दूसरे_तर्क_का_ जवाब :- योग्यता कुछ और नहीं परीक्षा के प्राप्त अंक के प्रतिशत को कहते हैं। जहाँ प्राप्तांक के साथ साक्षात्कार होता है, वहां प्राप्तांकों के साथ आपकी भाषा एवं व्यवहार को भी योग्यता का मापदंड मान लिया जाता है। अर्थात SC St OBC के छात्र ने किसी परीक्षा में 60 % अंक प्राप्त किए और सामान्य जाति के किसी छात्र ने 62 % अंक प्राप्त किये तो SC St OBC का छात्र अयोग्य है और सामान्य जाति का छात्र योग्य है।
आप सभी जानते है कि परीक्षा में प्राप्त अंकों का प्रतिशत एवं भाषा, ज्ञान एवं व्यवहार के आधार पर योग्यता की अवधारणा नियमित की गयी है जो की अत्यंत त्रुटिपूर्ण और अतार्किक है। यह स्थापित सत्य है कि किसी भी परीक्षा में अनेक आधारों पर अंक प्राप्त किये जा सकते हैं। परीक्षा के अंक विभिन्न कारणों से भिन्न हो सकते है। जैसे कि किसी छात्र के पास सरकारी स्कूल था और उसके शिक्षक वहां नहीं आते थे और आते भी थे तो सिर्फ एक। सिर्फ एक शिक्षक पूरे विद्यालय के लिए जैसा की प्राथमिक विद्यालयों का हाल है, उसके घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था, उसके पास किताब नहीं थी, उस छात्र के पास न ही इतने पैसे थे कि वह ट्यूशन लगा सके। स्कूल से आने के बाद घर का काम भी करना पड़ता। उसके दोस्तों में भी कोई पढ़ा लिखा नहीं था। अगर वह मास्टर से प्रश्न पूछता तो उत्तर की बजाय उसे डांट मिलती आदि। ऐसी शैक्षणिक परिवेश में अगर उसके परीक्षा के नंबरों की तुलना कान्वेंट में पढने वाले छात्रों से की जायेगी तो क्या यह तार्किक होगा। इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है......
आप सभी जानते है कि परीक्षा में प्राप्त अंकों का प्रतिशत एवं भाषा, ज्ञान एवं व्यवहार के आधार पर योग्यता की अवधारणा नियमित की गयी है जो की अत्यंत त्रुटिपूर्ण और अतार्किक है। यह स्थापित सत्य है कि किसी भी परीक्षा में अनेक आधारों पर अंक प्राप्त किये जा सकते हैं। परीक्षा के अंक विभिन्न कारणों से भिन्न हो सकते है। जैसे कि किसी छात्र के पास सरकारी स्कूल था और उसके शिक्षक वहां नहीं आते थे और आते भी थे तो सिर्फ एक। सिर्फ एक शिक्षक पूरे विद्यालय के लिए जैसा की प्राथमिक विद्यालयों का हाल है, उसके घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था, उसके पास किताब नहीं थी, उस छात्र के पास न ही इतने पैसे थे कि वह ट्यूशन लगा सके। स्कूल से आने के बाद घर का काम भी करना पड़ता। उसके दोस्तों में भी कोई पढ़ा लिखा नहीं था। अगर वह मास्टर से प्रश्न पूछता तो उत्तर की बजाय उसे डांट मिलती आदि। ऐसी शैक्षणिक परिवेश में अगर उसके परीक्षा के नंबरों की तुलना कान्वेंट में पढने वाले छात्रों से की जायेगी तो क्या यह तार्किक होगा। इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है......
पूरी की पूरी सांस्कृतिक पूँजी, अच्छा स्कूल, अच्छे मास्टर, अच्छी किताबें, पढ़े-लिखे माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार, पड़ोसी, दोस्त एवं मोहल्ला।
स्कूल जाने के लिए कार या बस, स्कूल के बाद ट्यूशन या माँ-बाप का पढाने में सहयोग। क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों के मध्य परीक्षा में प्राप्तांक योग्यता का निर्धारण कर सकते हैं?
क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों में भाषा एवं व्यवहार की तुलना की जा सकती है? यह तो लाज़मी है कि स्वर्ण समाज के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की परीक्षा में प्राप्तांक एवं भाषा के आधार पर योग्यता का निर्धारण अतार्किक एवं अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है?
स्कूल जाने के लिए कार या बस, स्कूल के बाद ट्यूशन या माँ-बाप का पढाने में सहयोग। क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों के मध्य परीक्षा में प्राप्तांक योग्यता का निर्धारण कर सकते हैं?
क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों में भाषा एवं व्यवहार की तुलना की जा सकती है? यह तो लाज़मी है कि स्वर्ण समाज के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की परीक्षा में प्राप्तांक एवं भाषा के आधार पर योग्यता का निर्धारण अतार्किक एवं अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है?
#तीसरे_और_चौथे_ तर्क_का_जवाब :- भारतीय समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है, जो 6743 जातियों में बटा है और यह 6743 जातियां लगभग 2500 वर्षों से मौजूद है। इस श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था के कारण अनेक समूहों जैसे दलित, आदिवासी एवं पिछड़े समाज को सत्ता एवं संसाधनों से दूर रखा गया और इसको धार्मिक व्यवस्था घोषित कर स्थायित्व प्रदान किया गया। इस हजारों वर्ष पुरानी श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने के लिए एवं सभी समाजों को बराबर–बराबर का प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान में कुछ जाति विशेष को आरक्षण दिया गया है। इस प्रतिनिधित्व से यह सुनिश्चित करने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने हक की लड़ाई एवं अपने समाज की भलाई एवं बनने वाली नीतियों को सुनिश्चित कर सके। अतः यह बात साफ़ हो जाति है कि जातियां एवं जातिवाद भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान था। प्रतिनिधित्व ( आरक्षण) इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए लाया गया न की इसने जाति और जातिवाद को जन्म दिया है। तो जाति पहले से ही विद्यमान थी और आरक्षण बाद में आया है। अगर आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है तो, सवर्णों द्वारा स्थापित समान-जातीय विवाह, समान-जातीय दोस्ती एवं रिश्तेदारी क्या करता है? वैसे भी बीस करोड़ की आबादी में एक समय में केवल तीस लाख लोगों को नौकरियों में आरक्षण मिलने की व्यवस्था है, बाकी 19 करोड़ 70 लाख लोगों से सवर्ण समाज आतंरिक सम्बन्ध क्यों नहीं स्थापित कर पाता है? अतः यह बात फिर से प्रमाणित होती है की आरक्षण जाति और जातिवाद को जन्म नहीं देता बल्कि जाति और जातिवाद लोगों की मानसिकता में पहले से ही विद्यमान है।
#पांचवे_तर्क_का _जवाब :- प्रायः सवर्ण बुद्धिजीवी एवं मीडियाकर्मी फैलाते रहते हैं कि आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए है, जब उनसे पूछा जाता है कि आखिर कौन सा आरक्षण दस वर्ष के लिए है तो मुँह से आवाज़ नहीं आती है।
इस सन्दर्भ में केवल इतना जानना चाहिए कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राजनैतिक आरक्षण जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में निहित है, उसकी आयु और उसकी समय-सीमा दस वर्ष निर्धारित की गयी थी। नौकरियों के लिए आरक्षण की कोई समय सीमा सुनिश्चित नहीं की गयी थी।
#छठे_तर्क_का_जव ाब :- आज की सवर्ण पीढ़ी अक्सर यह प्रश्न पूछती है कि हमारे पुरखों के अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, छल कपटता, धूर्तता आदि की सजा आप वर्तमान पीढ़ी को क्यों दे रहे है?👉👇
इस सन्दर्भ में अछूतों (SC St OBC) का मानना है कि आज की general category की युवा पीढ़ी अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूँजी का किसी न किसी के रूप में लाभ उठा रही है। वे अपने पूर्वजों के स्थापित किये गए वर्चस्व एवं ऐश्वर्य का अपनी जाति के उपनाम, अपने कुलीन उच्च वर्णीय सामाजिक तंत्र, अपने सामाजिक मूल्यों, एवं मापदंडो, अपने तीज त्योहारों, नायकों, एवं नायिकाओं, अपनी परम्पराओ एवं भाषा और पूरी की पूरी ऐतिहासिकता का उपभोग कर रहे हैं।
क्या सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपने सामंती सरोकारों और सवर्ण वर्चस्व को त्यागने हेतु कोई पहल कर रही है?
कोई आन्दोलन या अनशन कर रही है? कितने धनवान युवाओ ने अपनी पैत्रिक संपत्ति को दलितों के उत्थान के लिए लगा दिया या फिर दलितों के साथ ही सरकारी स्कूल में ही रह कर पढाई करने की पहल की है?
जब तक ये युवा स्थापित मूल्यों की संरचना को तोड़कर नवीन संरचना कायम करने की पहल नहीं करते तब तक दलित समाज उनको भी उतना ही दोषी मानता रहेगा जितना की उनके पूर्वजों को।
आरक्षण मूलनिवासियों का अधिकार है :- सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।
आखिर क्यूँ बना दिया संवैधानिक आरक्षण को एक सदाबहार टाईम-पास और राजनैतिक मुद्दा? जबकि देश आजतक इसे पूर्ण रूप में लागू भी नही कर पाया है और प्राईवेट सेक्टरों व प्रमोशन में इसे अभी तक लागू नही किया। आजकल तो हर कोई मनुवादी इसकी परिभाषा ही बदलने कि कोशिश में है कोई संवैधानिक आरक्षण के लिए आर्थिक आधार कि बात कर रहा तो कोई समाप्त करने कि, संवैधानिक आरक्षण का मकसद क्या है? इसकी आवश्यक क्यूँ पड़ी? इसके क्या मायने है? जातिगत शोषण हो रहा है लेकिन जातिगत आरक्षण का विरोध क्यूँ?
क्या सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपने सामंती सरोकारों और सवर्ण वर्चस्व को त्यागने हेतु कोई पहल कर रही है?
कोई आन्दोलन या अनशन कर रही है? कितने धनवान युवाओ ने अपनी पैत्रिक संपत्ति को दलितों के उत्थान के लिए लगा दिया या फिर दलितों के साथ ही सरकारी स्कूल में ही रह कर पढाई करने की पहल की है?
जब तक ये युवा स्थापित मूल्यों की संरचना को तोड़कर नवीन संरचना कायम करने की पहल नहीं करते तब तक दलित समाज उनको भी उतना ही दोषी मानता रहेगा जितना की उनके पूर्वजों को।
आरक्षण मूलनिवासियों का अधिकार है :- सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।
आखिर क्यूँ बना दिया संवैधानिक आरक्षण को एक सदाबहार टाईम-पास और राजनैतिक मुद्दा? जबकि देश आजतक इसे पूर्ण रूप में लागू भी नही कर पाया है और प्राईवेट सेक्टरों व प्रमोशन में इसे अभी तक लागू नही किया। आजकल तो हर कोई मनुवादी इसकी परिभाषा ही बदलने कि कोशिश में है कोई संवैधानिक आरक्षण के लिए आर्थिक आधार कि बात कर रहा तो कोई समाप्त करने कि, संवैधानिक आरक्षण का मकसद क्या है? इसकी आवश्यक क्यूँ पड़ी? इसके क्या मायने है? जातिगत शोषण हो रहा है लेकिन जातिगत आरक्षण का विरोध क्यूँ?
कुछ लोग आजकल आरक्षण को गरीबी-अमीरी से जोड़ रहे है जो बिल्कुल ही गलत परिभाषा है
आरक्षण प्रतिनिधित्व के लिए उस शोषित वर्ग का जिसको ये मनुवादी इंसान भी नहीं मानते थे, उस पहचाने वंचित समुदाय को जो अभी तक मुख्यधारा में नही था उस दलित, आदिवासी को तमाम सामाजिक बाधा से बचाकर उसको सिस्टम में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिलाने के इसे संवैधानिक अधिकार दिया गया। सिस्टम में अपने हितों की रक्षा करने के लिए यह प्रतिनिधित्व का हक है जिसे आजकल गरीब-अमीर बनाने का यंत्र घोषित किया जा रहा है यह कैसे मान्य होगा..!!
आरक्षण प्रतिनिधित्व के लिए उस शोषित वर्ग का जिसको ये मनुवादी इंसान भी नहीं मानते थे, उस पहचाने वंचित समुदाय को जो अभी तक मुख्यधारा में नही था उस दलित, आदिवासी को तमाम सामाजिक बाधा से बचाकर उसको सिस्टम में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिलाने के इसे संवैधानिक अधिकार दिया गया। सिस्टम में अपने हितों की रक्षा करने के लिए यह प्रतिनिधित्व का हक है जिसे आजकल गरीब-अमीर बनाने का यंत्र घोषित किया जा रहा है यह कैसे मान्य होगा..!!
कुछ लोग आजकल आर्थिक आधार पर आरक्षण कि माँग कर रहे है उन लोगों से एक सवाल है- 👉भाईयों जो बीपीएल कार्ड द्वारा जो सुविधाएँ मिल रही है क्या इसे आर्थिक आरक्षण नही कह सकते?
कुछ लोग इसे केवल सरकारी नौकरी से जोड़कर देख रहे उन लोगों से भी पूछना चाहता हूँ - 👉भाईयों नजर केवल सरकारी पर ही क्यूँ? सरकारी नौकरी पूरे भारत में कितनी है ? सरकारी नौकरीयों के अनुपात में प्राईवेट नौकरीयों का अनुपात क्या है और वहाँ आज कितने दलित,आदिवासी है?
कम्पनीयों व पत्रकारिता में कितने पिछडे वर्ग के लोग है पूँजीपतियों? प्राईवेट सेक्टर मे आरक्षण लागू होना चाहिए क्या आप फोलो करते हो? देश मे बमुश्किल 1.5 से 2 करोड़ सरकारी नौकरी होगी उनमें आज भी उच्च पदों (officer) पर कितने दलित,आदिवासी है? बाकी प्राईवेट सेक्टर में 10-15 करोड़ नौकरीयों कौन खा रहा है? शायद आपके पास जवाब नही है..!!
कम्पनीयों व पत्रकारिता में कितने पिछडे वर्ग के लोग है पूँजीपतियों? प्राईवेट सेक्टर मे आरक्षण लागू होना चाहिए क्या आप फोलो करते हो? देश मे बमुश्किल 1.5 से 2 करोड़ सरकारी नौकरी होगी उनमें आज भी उच्च पदों (officer) पर कितने दलित,आदिवासी है? बाकी प्राईवेट सेक्टर में 10-15 करोड़ नौकरीयों कौन खा रहा है? शायद आपके पास जवाब नही है..!!
आरक्षण जातिगत इसलिए बनाया गया कि मनुवादियों ने जो वर्ण व्यवस्था बनाई उनमें पिछड़े लोगों का जन्म शोषित होने के लिए रह गया उन्हें इन्सान भी नही माना जाता था जातिवाद एक सामाजिक भ्रष्टाचार है, बुराई है जब तक यह खत्म नही होगा तब तक आरक्षण भी खत्म नही होगा, ना ही उसकी परिभाषा बदलेगी।
आज जब आरक्षण द्वारा दलितों की दशा सुधार की एक छोटी सी पहल होती है तो वो भी स्वर्णों की आंख में कांटा बन के चुभने लगता है |
क्या स्वर्ण बंधू आरक्षण का विरोध करने से पहले वो सब करने और झेलने के लिए तैयार हैं जो दलित हजारो सालों से करता और सहता आ रहा है ?
क्या सवर्ण बन्धु मल उठाने, गटर साफ़ करने, संडास साफ़ करने, पशुओं की खाल उतारने जैसे कार्यों में जो की केवल दलितों के लिए ही आरक्षित कर दिया गया है उसका विरोध कर सकते हैं?
क्या सवर्ण बन्धु जातिसूचक गालियां खाने के लिए तैयार हैं जो उनके द्वारा दलितों के लिए बनायीं है? यदि नहीं तो फिर आरक्षण का विरोध क्यों?
आज जब आरक्षण द्वारा दलितों की दशा सुधार की एक छोटी सी पहल होती है तो वो भी स्वर्णों की आंख में कांटा बन के चुभने लगता है |
क्या स्वर्ण बंधू आरक्षण का विरोध करने से पहले वो सब करने और झेलने के लिए तैयार हैं जो दलित हजारो सालों से करता और सहता आ रहा है ?
क्या सवर्ण बन्धु मल उठाने, गटर साफ़ करने, संडास साफ़ करने, पशुओं की खाल उतारने जैसे कार्यों में जो की केवल दलितों के लिए ही आरक्षित कर दिया गया है उसका विरोध कर सकते हैं?
क्या सवर्ण बन्धु जातिसूचक गालियां खाने के लिए तैयार हैं जो उनके द्वारा दलितों के लिए बनायीं है? यदि नहीं तो फिर आरक्षण का विरोध क्यों?
और हां ये पोस्ट सिर्फ अपने तक सीमित मत रखिए
क्योंकि मुझे उम्मीद है आप..... हमारे जैसे क्रान्तिकारी साथियों के पोस्टों को पढ़ते पढ़ते मनुवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार हो गए हैं। इसलिए आपकी जिम्मेदारी बनती है कि इस तरह के लेखों को जोर का धक्का लगाइए जिससे अधिक से अधिक लोग जागरूक हो सकें।🙏
क्योंकि मुझे उम्मीद है आप..... हमारे जैसे क्रान्तिकारी साथियों के पोस्टों को पढ़ते पढ़ते मनुवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार हो गए हैं। इसलिए आपकी जिम्मेदारी बनती है कि इस तरह के लेखों को जोर का धक्का लगाइए जिससे अधिक से अधिक लोग जागरूक हो सकें।🙏
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें